35वी पुण्यतिथि पर याद किये गए दुनिया मे शांति के रहनुमा इमाम ख़ुमैनी, बाराबंकी में जगह जगह हुई मजलिसे,कर्बला सिविल लाइन्स और किन्तुर में हर धर्म के लोगो ने पुष्पांजलि अर्पित कर मोमबत्ती जलाकर पेश की श्रद्धांजलि
बाराबंकी :35वी पुण्यतिथि पर याद किये गए दुनिया मे शांति के रहनुमा इमाम ख़ुमैनी,की याद में अंजुमन पैग़ाम कर्बला के तत्वाधान में कर्बला सिविल लाइन्स मे नवहा मातम हुआ और उनकी तस्वीर पर पुष्पांजलि अर्पित कर मोमबत्तियां जलाकर श्रद्धान्जलि अर्पित की गई।जिसमें हर धर्म और मसलक के लोगो ने शिरकत की ।
इस मौके पर 86 देशों में 12 करोड़ से ज़ियादा अनुनायी वाले अखिल विश्व गायत्री परिवार शांति कुंज हरिद्वार के प्रवक्ता योगाचार्य अखिलेश पांडेय ने इमाम ख़ुमैनी को श्रद्धान्जलि पेश करते हुए कहा कि इमाम ख़ुमैनी से इस धरती को बड़ा योगदान प्राप्त हुआ, ईरान और भारत की मैत्री का कारण यहाँ के संत ऋषि पैग़ाम लेकर गए,जिसने पूरे विश्व मे शांति और उन्नयन प्रदान किया।
हर वर्ष हर जाति धर्म के हज़ारों लोगों के मोतियाबिंद और अन्य ऑपरेशन कराने वाला देश की सबसे बड़ी संस्था श्री राम वन कुटीर आश्रम हाड़ियाकोल के सेवादार मनीष मेहरोत्रा ने पुष्पांजली अर्पित कर कहा आयतुल्लाह ख़ुमैनी साहब ने हज़रत इमाम अली का पैगाम दुनिया मे पहुँचाया,हम उनको श्रद्धान्जलि अर्पित करते है।
आपको बता दे ईरान में इन्कलाब है,शैतानी साजिशो से लड़ने इंसानियत बचाने और दुनिया में शांति स्थापित करने के लिए बलिदान जारी है।
इस क्रांति के रहनुमा आयतुल्लाह रूहुतुल्लाह इमाम ख़ुमैनी की तीन जून 1989 को मृत्यु हुई थी ,क़रीब 50 लाख लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठे हुए थे।
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी का किन्तूर गाँव यूँ तो उत्तर प्रदेश के बाक़ी गाँवों की मानिंद चुपचाप सा रहता है लेकिन एक फ़रवरी, 1979 की शाम उसमें कुछ चेतना अवश्य आई होगी. आती भी क्यों नहीं– इसी गाँव का पोता- आयतुल्लाह रूहुल्लाह ख़ुमैनी 14 साल के निष्कासन के बाद अपने वतन जो लौट रहा था. यह वतन हिंदुस्तान नहीं बल्कि ईरान था.
बाराबंकी के किन्तूर गाँव की धड़कनों का तेज़ होना शायद इसलिए वाजिब था क्योंकि ईरान की इस्लामी क्रांति के प्रवर्तक रूहुल्लाह ख़ुमैनी के दादा सैय्यद अहमद मूसवी हिंदी, सन 1790 में, बाराबंकी के इसी छोटे से गाँव किन्तूर में ही जन्मे थे.
रूहुल्लाह ख़ुमैनी के दादा क़रीब 40 साल की उम्र में अवध के नवाब के साथ धर्मयात्रा पर इराक गए और वहां से ईरान के धार्मिक स्थलों की ज़ियारत की और ईरान के ख़ुमैन नाम के गाँव में जा बसे.
उन्होंने फिर भी अपना उपनाम ‘हिंदी’ ही रखा. उनके पुत्र आयतुल्लाह मुस्तफ़ा हिंदी का नाम इस्लामी धर्मशास्त्र के जाने-माने जानकारों में शुमार हुआ. उनके दो बेटों में, छोटे बेटे रूहुल्लाह का जन्म सन 1902 में हुआ, जो आगे चलकर आयतुल्लाह ख़ुमैनी ,इमाम ख़ुमैनी के रूप में प्रसिद्ध हुए.
रूहुल्लाह के जन्म के 5 महीने बाद उनके पिता सैयद मुस्तफ़ा हिंदी की हत्या हो गई थी. पिता की मौत के बाद रूहुल्लाह का लालन-पालन उनकी माँ और मौसी ने किया और उन्होंने अपने बड़े भाई मुर्तजा की देख-रेख में इस्लामी शिक्षा ग्रहण की.
रूहुल्लाह ख़ुमैनी को इस्लामी विधिशास्त्र और शरिया में विशेष रुचि थी और इसके साथ-साथ उन्होंने पश्चिमी दर्शनशास्त्र का भी अध्यन किया. अरस्तू को तो वे तर्कशास्त्र का जनक मानते थे.
ईरान के अराक और क़ुम शहर स्थित इस्लामी शिक्षा केंद्रों में पढ़ते-पढ़ाते वह शहंशाही राजनीतिक प्रणाली का पुरज़ोर विरोध करने लगे और उसकी जगह विलायत-ए-फ़कीह (धार्मिक गुरु की संप्रभुता) जैसी पद्धति की वकालत करने लगे.
पहलवी सल्तनत के इसी विद्रोह के तहत उन्हें ईरान से देशनिकाला दे दिया गया. तुर्की, इराक और फ़्रांस में निष्कासन के दौरान आयतुल्लाह ख़ुमैनी का ईरानी पहलवी शासन का विरोध जारी रहा. ईरानी जनता भी रूहुल्लाह ख़ुमैनी को अपना नेता मान चुकी थी.
पहलवी शासन को अब इसका आभास हुआ कि जनता और अन्य विरोधी राजनैतिक समूह ख़ुमैनी के नेतृत्व में एकजुट हो चुके हैं.
क्रांति को थमते न देख, पहलवी खानदान के दूसरे बादशाह मुहम्मद रज़ा पहलवी ने सोलह जनवरी, उनीस सौ नवासी को देश छोड़ दिया और विदेश चले गए. राजा के देश छोड़ने के पंद्रह दिन के बाद ख़ुमैनी लगभग चौदह साल के निष्कासन के बाद एक फ़रवरी, उनीस सौ नवासी को ईरान लौट आए. इसके बाद उन्होंने ईरान में शाहंशाही की जगह इस्लामी गणराज्य की स्थापना की.
सत्ताईस जुलाई उनीस सौ अस्सी को ईरानी शहंशाह मोहम्मद रज़ा पहलवी ने वतन से दूर आखिरी सांस ली
रूहुल्लाह ख़ुमैनी के चरित्र का एक और चर्चित पक्ष भी रहा और वह था उनका सूफ़िआना कलाम में महारत होना. वह अपनी इरफ़ाना ग़ज़लों को रूहुल्लाह हिंदी के नाम से लिखते थे।
उनीस सौ नवासी को आयतुल्लाह रूहुतुल्लाह ख़ुमैनी की मृत्यु हुई तो क़रीब पचास लाख लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठे हुए थे।
मगर बाराबंकी का दिल अब भी धड़क रहा है.आज उनके लिए दुआगो है।
इस मौके पर सदाचारी लाला उमेश चंद्र श्रीवास्तव, मोहम्मद वसीक, कफील हैदर मुसवी, आदिल हसन, शम्स हैदर, रईस रिज़वी, मुज़म्मिल, निसार हैदर, जावेद नक़वी, अख्तियार हुसैन, शावेज़ हैदर, गुलाम अस्करी,अज़मी नक़वी, कैफ़ी, नक़वी रज़ा मेहदी, के अलावा बड़ी संख्या में लोग उपस्थित थे।